Sunday, 26 February 2012

कुछ मीठी यादें


पिछले कई हफ्तों से हर रोज़ रात में एक उम्मीद लेकर बैठ रहा था कि फिर कुछ शुरू किया जाए। फिर कुछ शब्दों को काग़ज़ पर कत्ल किया जाए। कुछ नए विचारों को जन्म दिया जाए। और सहलाया जाए उन भावानाओं को दिल की सतह पर आती जाती रही। पर हमेशा की तरह बारिश बंजर ज़मीन पर नहीं बरसती है। ठीक उसी तरह बस सोचने से ही कुछ लिखना भी मुनासिब नहीं। लिखने के विचार कुछ और थे लिख कुछ और ही डाला। दो-तीन महीने पहले बमुश्किल 399 दिन के बाध अपने वतन का रूख़ किया था। तब उस मिट्टी की महक, अपने बस्ती की वो शांति, लह-लहाते खेत और अपनी गाड़ी पर चलते हुए लगने वाली कड़ाह की आबोहवा ने यहाँ के बारे में अपने विचार लिखने का बीज मन में बो दिया था। पर दिल्ली आकर वक़्त के चलते उस बीज में शब्दों का खाद और पानी डालने का मौका ही नहीं मिला। आज लिखने बैठा भी तो कुछ पुरानी अधूरी बातें याद आ गई जो वहां बितायें
थे ।                                                           
शायद मेरी ज़िन्दगी की पहली बकरीद हो जो मैंने वहां किया। बकरीद के दो दिन बाध मेरी बहन की शादी थी। शायद यही वजह हो की मैं दोस्तों के बीच बैठ नहीं
 पाय । नाही उनके साथ घूम पाया। और देखते ही देखते मेरी रवानगी का वक़्त आ गया। दिल में कसक सि जागी के ना जाऊं। पर नौकरी का सवाल आन भी जरुरी था। दिल्ली पहुँचते ही कईयों ने तो कहा मोहर्रम छोड़ कर क्यूँ आ गया मोहर्रम में अब दिन ही कितने बचे।
  मोहर्रम को लेकर लोगो की इतनी दिलचस्पी देख कर.मेरा भी दिल डगमगाया पर मैंने दिल को मना लिया। मोहर्रम की 8 तारीख को इतने लोगो को जाते देख कर मैं भी ट्रेन में बैठ गया। वो मंज़र देखने लायक था। यकीन मानो ऐसा लग रहा था की आधी ट्रेन पर कड़ाह के ही लोग हों। ट्रेन चली पर सफ़र का पता ही नहीं चला और  घर पहुँच पाए। जब ट्रेन से उतरते लोगो को देखा तो लगा की आज दिल्ली खाली हो गई होगी।                    
तभी मेरे कानो में डंके की गूंज सुनाई देने लगी। कई लोग स्टेशन पर डंका लेकर पहुंचे हुए  थे। उन्हें बजाते हुए देख कर जी में तो आया की एक ताल हो जाये पर अफ़सोस की मुझे बजाना ही नहीं आता। कड़ाह में जो चहल- पहल मोहर्रम में देखने को मिला शायद ही कभी और मिला हो। लोगो के चहरे पर एक अलग ही कुशी नज़र आ रही थी। उस ख़ुशी में मैं भी शामिल हो गया। और जी भर कर जी अपनी ज़िन्दगी। मोहर्रम पर मुझे कई ऐसा लोग भी मिले जिनसे मिले 8,10 साल हो गए थे।  

कड़ाह का मैं रहने वाला

हैदर गंज कड़ाह,बिहार~India
रज़ा ! जी हाँ रज़ा कादरी। मज़हबी,गरीब और इमानदार परिवार का बेटा (आप चाहें तो इसके आगे भी 'कुछ' लगा सकते हैं)। प्राचीन काल के विशाल साम्राज्यों का गढ़ कहे जाने वाले बिहार के एक छोटे से गाँव हैदर गंज कड़ाह में मैं पैदा हुआ लेकिन पला-बढ़ा दिल्ली में। पर दिल रह गया गाँव में। घूमने-फिरने मतलब 'भटकने', खाने-पीने यानि कि 'चरने' और दोस्त मिल जाएँ तो बकते रहने का शगल कूट-कूट कर भरा हुआ है। accounts से बारहवीं करने के बाद लोगों को लगा था कि बिजनेस मैन बनूँगा या फिर CA बनकर लोगो के काले धन को सफ़ेद करूँगा। पर हम निकल आए दूजे रास्ते पर। पत्रकारिता से स्नातक की। उसी दौरान अनुवादक के रूप में हिंदी भाषा की सेवा भी कर ली। वहाँ से निकले तो टीवी और रेडियो पर बोलने का काम कर लेते हैं कभी-कभी। रंगमंच से लगाव था इसलिए अभिनय के संसार में भी मौका मिल गया। हिंदी और उर्दू में कुछ काम कर चुका हूँ। हालाँकि उर्दू आती तो नहीं,लेकिन साथियों और घर वालो की मदद से उच्चारण दोष के साथ काम चल जाता है। वैसे तो पूरे गाँव में किसी ने कला और साहित्य के उद्देश्य से कभी कलम नहीं चलाई, ना ही कभी मुझे कोई प्रोत्साहन मिला लेकिन फिर भी कीड़ा लगना था सो लग गया। कितना और कैसा ये फैसला आप करते रहें, मैं ठहरा गम्मती तो अपनी दिमाग़ी गम्मत यहाँ पर करता रहूँगा आप लोग साथ देते रहिएगा! गम्मत करने का ठिया बन गया है! अब होगी शानदार गम्मत!!!

Thursday, 23 February 2012

हम भी कुछ नाम कर लेते

मेरी कलम की स्याही के हालिया दाग़
जो काग़ज़ पर उतर आए। आपकी नज़र पेश हैं

उस मोड़ पर नज़रों से दुआ-सलाम कर लेते,
हम भी हँसकर तुम्हारा एहतराम कर देते।
तुम्हे शकोशुबह है फ़कत एक लफ़्ज़ दोस्ती पर,
हमसे कहते हम दास्तानें बयान कर देते।

एहसासों के दंगे हैं गर तेरी परेशानी का सबब,
तो प्यार को तलवार, नफ़रत को मयान कर देते।

अकेले में नज़रों से तीर चलाना तुमने सिखाया,
वरना तो हम इज़हार-ए-इश्क़ सरेआम कर देते,

तेरी ख़ामोशी जो होती मेरी हँसी की कीमत,
हम अपनी दुआओं को भी बेज़ुबान कर देते,

एक कोर रोटी ही थी उस ग़रीब की ख़्वाहिश,
वो कहता तो क्रिसमस-दीवाली-रमज़ान कर देते,

मज़हब के बँटवारे में भी ऐसे बाँटते तिरंगा फिर,
कि नारंगी गीता सफ़ेद बाइबल, हरी कुरान कर देते,

हक़ से कोई तो पूछे ‘बता रज़ा  क्या है तेरी रज़ा  ?’
आपकी कसम हम शिकायतें तमाम कर देते,

उन जनाब के शौक ही चचा ग़ालिब थे वरना,
दो पंक्ति सुनाकर हम भी कुछ नाम कर लेते।