पिछले कई हफ्तों से हर रोज़ रात में एक उम्मीद लेकर बैठ रहा था कि फिर कुछ शुरू किया जाए। फिर कुछ शब्दों को काग़ज़ पर कत्ल किया जाए। कुछ नए विचारों को जन्म दिया जाए। और सहलाया जाए उन भावानाओं को दिल की सतह पर आती जाती रही। पर हमेशा की तरह बारिश बंजर ज़मीन पर नहीं बरसती है। ठीक उसी तरह बस सोचने से ही कुछ लिखना भी मुनासिब नहीं। लिखने के विचार कुछ और थे लिख कुछ और ही डाला। दो-तीन महीने पहले बमुश्किल 399 दिन के बाध अपने वतन का रूख़ किया था। तब उस मिट्टी की महक, अपने बस्ती की वो शांति, लह-लहाते खेत और अपनी गाड़ी पर चलते हुए लगने वाली कड़ाह की आबोहवा ने यहाँ के बारे में अपने विचार लिखने का बीज मन में बो दिया था। पर दिल्ली आकर वक़्त के चलते उस बीज में शब्दों का खाद और पानी डालने का मौका ही नहीं मिला। आज लिखने बैठा भी तो कुछ पुरानी अधूरी बातें याद आ गई जो वहां बितायें
थे ।
शायद मेरी ज़िन्दगी की पहली बकरीद हो जो मैंने वहां किया। बकरीद के दो दिन बाध मेरी बहन की शादी थी। शायद यही वजह हो की मैं दोस्तों के बीच बैठ नहीं
पाय । नाही उनके साथ घूम पाया। और देखते ही देखते मेरी रवानगी का वक़्त आ गया। दिल में कसक सि जागी के ना जाऊं। पर नौकरी का सवाल आन भी जरुरी था। दिल्ली पहुँचते ही कईयों ने तो कहा मोहर्रम छोड़ कर क्यूँ आ गया मोहर्रम में अब दिन ही कितने बचे।
मोहर्रम को लेकर लोगो की इतनी दिलचस्पी देख कर.मेरा भी दिल डगमगाया पर मैंने दिल को मना लिया। मोहर्रम की 8 तारीख को इतने लोगो को जाते देख कर मैं भी ट्रेन में बैठ गया। वो मंज़र देखने लायक था। यकीन मानो ऐसा लग रहा था की आधी ट्रेन पर कड़ाह के ही लोग हों। ट्रेन चली पर सफ़र का पता ही नहीं चला और घर पहुँच पाए। जब ट्रेन से उतरते लोगो को देखा तो लगा की आज दिल्ली खाली हो गई होगी।
तभी मेरे कानो में डंके की गूंज सुनाई देने लगी। कई लोग स्टेशन पर डंका लेकर पहुंचे हुए थे। उन्हें बजाते हुए देख कर जी में तो आया की एक ताल हो जाये पर अफ़सोस की मुझे बजाना ही नहीं आता। कड़ाह में जो चहल- पहल मोहर्रम में देखने को मिला शायद ही कभी और मिला हो। लोगो के चहरे पर एक अलग ही कुशी नज़र आ रही थी। उस ख़ुशी में मैं भी शामिल हो गया। और जी भर कर जी अपनी ज़िन्दगी। मोहर्रम पर मुझे कई ऐसा लोग भी मिले जिनसे मिले 8,10 साल हो गए थे।